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लद्दाख हिमालयी दर्रो की धरती है। उत्तर में काराकोरम पर्वत श्रंखला और दक्षिण में हिमालय से घिरे इस इलाके में आबादी का घनत्व बहुत कम है। इसकी दुर्गमता का आलम यह है कि इसके पूर्व में दुनिया की छत कहा जाने वाला तिब्बत, उत्तर में मध्य एशिया, पश्चिम में कश्मीर और दक्षिण में लाहौल-स्पीति घाटियां हैं। अपने अनूठे प्राकृतिक सौंदर्य के लिए लद्दाख बेमिसाल है। यहॉ बौद्ध संस्कृति की स्थापना दूसरी सदी में ही हो गई थी। इसीलिए इसे मिनी तिब्बत भी कहा जाता है। लद्दाख की ऊंचाई कारगिल में 9000 फुट से लेकर काराकोरम में 25000 फुट तक है।
कैसे जाएं
वायु मार्ग से: लेह के लिए दिल्ली, ज?मू व श्रीनगर से सीधी उड़ानें हैं। दिल्ली से लेह का वापसी किराया 7195 रु. और जम्मू व श्रीनगर से वापसी किराया क्रमश: 4480 रु. व 3960 रुपये है।
सड़क मार्ग से: लेह जाने के दो रास्ते हैं। एक श्रीनगर से (434 किलोमीटर) और दूसरा मनाली से (473 किलोमीटर)। दोनों रास्ते जून से नवंबर तक ही खुले रहते हैं। साल के बाकी समय में वायु मार्ग ही एकमात्र रास्ता है। दोनों ही रास्ते देश के कुछ सबसे ऊंचे दर्रो से गुजरते हैं। लेकिन जहां मनाली से लेह का रास्ता बर्फीले रेगिस्तान से होता हुआ जाता है, वहीं श्रीनगर का रास्ता अपेक्षाकृत हरा-भरा है। थोड़ा कम रोमांचक लेकिन ज्यादा खूबसूरत। दोनों ही रास्तों पर राज्य परिवहन निगमों की बसें चलती हैं जो दो-दो दिन में सफर पूरा करती हैं। श्रीनगर से लेह के रास्ते में कारगिल में रात्रि विश्राम होता है तो मनाली से लेह के रास्ते में सरछू या पांग में। बसें ही लेह जाने का सबसे किफायती तरीका हैं। बसें सामान्य भी हैं और डीलक्स भी। वैसे श्रीनगर व मनाली, दोनों ही जगहों से टैक्सी भी ली जा सकती हैं।
कहां ठहरें
लेह में ठहरने के लिए हर तरह की सुविधा है। ज्यादातर होटल चूंकि स्थानीय लोगों द्वारा चलाए जाते हैं इसलिए उनकी सेवाओं में पारिवारिक लुत्फ ज्यादा होता है। यहां गेस्ट हाउसों में तीन सौ रुपये दैनिक किराये के डबल बेडरूम से लेकर बड़ी होटल में 2600 रु. रोजाना तक के कमरे मिल जाएंगे। लेकिन यहां घरों से जुड़े गेस्ट हाउसों में रहना न केवल किफायती है बल्कि लद्दाखी संस्कृति व रहन-सहन से परिचित भी कराता है। नुब्रा घाटी के इलाकों में हालांकि अभी पर्यटकों के रहने की व्यवस्था विकसित की जानी बाकी है। जून से सिंतबर के ट्यूरिस्ट सीजन में होटल बुकिंग पहले से करा लेना सुरक्षित रहता है। सर्दियों में जाने वालों के लिए भी बेहतर होगा कि वे जाने की पूर्व इत्तिला कर दें ताकि हीटर आदि के इंतजाम किए जा सकें।
सुबह व शाम के समय तो यहां पूरे सालभर गरम कपड़े पहनने होते हैं। जून से सितंबर तक दिन में थोड़ी गरमी होती है। हालांकि अगस्त से ही दिन के तापमान में भी गिरावट आने लगती है। गरमियों में भी दिन का तापमान यहां कभी 27-28 डिग्री से. से ऊपर नहीं जाता। सर्दियों में तो लेह तक में न्यूनतम तापमान शून्य से बीस डिग्री तक नीचे चला जाता है। इतनी ऊंचाई वाले इलाके होने से वहां हवा हल्की होती है। लिहाजा उसके लिए शरीर को तैयार करना होता है। ध्यान देने की बात यह है कि हवा हलकी होने की वजह से सूरज की रोशनी भी यहां ज्यदा घातक होती है। लेकिन आप छाया में रहें तो ठंड पकड़ने का खतरा भी उतनी ही तेजी से रहता है। कहा जाता है कि लद्दाख ही अकेली ऐसी जगह है जहां अगर कोई व्यक्ति पांव छाया में करके धूप में लेटा हो तो उसे सनस्ट्रोक और फ्रॉस्टबाइट, दोनों एक साथ हो सकते हैं। अगर वहां आप रोमांचक पर्यटन के इरादे से जा रहे हों तो जरूरी सामान साथ रखें। पर्याप्त भोजन भी साथ रखें क्योंकि पहाड़ों में आपको गांव काफी दूर-दूर मिलेंगे। रात में रुकने के लिए कपड़े, स्लीपिंग बैग व टॉर्च आदि जरूर अपने साथ रखें।
रोमांचक पर्यटन
यह इलाका ट्रैकिंग, पर्वतारोहण और राफ्टिंग के लिए काफी लोकप्रिय है। यूं तो यहां पहुंचना ही किसी रोमांच से कम नहीं लेकिन यहां आने वालों के लिए उससे भी आगे बेइंतहा रोमांच यहां उपलब्ध है। दुनिया की सबसे ऊंचाई पर स्थित सड़कों (मारस्मिक ला व खारदूंग ला) के अलावा इस इलाके में सात हजार मीटर से ऊंची कई चोटियां हैं जिनपर चढ़ने पर्वातारोही आते हैं। ट्रैकिंग के भी यहां कई रास्ते हैं। ट्रैकिंग व राफ्टिंग के लिए तो यहां उपकरण व गाइड आपको मिल जाएंगे लेकिन पर्वतारोहण के लिए भारतीय पर्वतारोहण संस्थान से संपर्क करना पड़ेगा। स्थानीय भ्रमण के लिए आपको यहां मोटरसाइकिल भी किराये पर मिल सकती है।
लद्दाख क्षेत्र में मूलत: बौद्ध धर्म की मान्यता है। इसलिए यहां की संस्कृति और तीज-त्योहार उसी के अनुरूप होते हैं। पूरे इलाके में हर तरफ आपको बौद्ध मठ देखने को मिल जाएंगे। इनमें से ज्यादातर इतिहास की धरोहर हैं। ज्यादातर बड़े मठों में हर साल अपने-अपने आयोजन होते हैं। तिब्बती उत्सव आम तौर पर काफी जोश व उल्लास के साथ मनाए जाते हैं। मुखौटे और अलग-अलग भेष बनाकर किए जाने वाले नृत्य-नाटक, लोकगीत व लोकनृत्य यहां की संस्कृति का प्रमुख अंग हैं। यहां की बौद्ध परंपरा का सबसे बड़ा आयोजन हेमिस का होता है। गुरु पद्मसंभव के स?मान में होने वाला यह आयोजन तिथि के अनुसार जून या जुलाई में होता है। इसी तरह ज्यादातर मठ सर्दियों व गरमियों में अपने-अपने जलसे करते हैं। लद्दाखी संस्कृति को संजोये रखने और पर्यटन को बढ़ावा देने के लिए पर्यटन विभाग भी अपने स्तर पर हर साल सितंबर में पंद्रह दिन का लद्दाख उत्सव आयोजित करता है।
क्या देखें
प्रकृति की इस बेमिसाल तस्वीर के नजारे आपकी आंखों को कभी थकने नहीं देते लेकिन उसके अलावा भी बौद्ध संस्कृति की अनमोल विरासत यहां मौजूद है। यहां देखने की ज्यादातर चीजें इसी से जुड़ी हैं। चाहे वह पुराने राजमहल हों, मठ हों, मंदिर या फिर संग्रहालय। लेह के आसपास के कई गांवों में इस तरह के मठ मिल जाएंगे। इस तरह का ज्यादातर निर्माण 14वीं सदी से 16वीं सदी के बीच लद्दाख के धर्मराजाओं ने कराया। हालांकि अधिकतर मठ व महल जर्जर अवस्था में हैं और उनके मूल निर्माण का कुछ हिस्सा ही आज सलामत है लेकिन फिर भी वे इतिहास के एक दौर की पूरी कहानी कहते हैं यहां के जनजीवन में देखने लायक सबसे अनोखी बात द्रोगपा गांव हैं। भारतीय क्षेत्र में कुल पांच द्रोगपा गांव हैं जिनमें से केवल दो ही में विदेशी पर्यटकों को जाने की इजाजत है। धाव बियामा गांवों में पूरी तरह दार्द लोगों के बचे-खुचे वंशजों की बसावट है। इन दार्द लोगों को सिंधु घाटी में आर्यो की आखिरी नस्ल माना जाता है। जाहिर है कि मानवविज्ञानियों के लिए इन गांवों की खासी अहमियत है। इनके सालाना त्योहार भी बड़े आकर्षक होते हैं जब सारे लोग अपनी पारंपरिक वेशभूषा में नाचते-गाते घरों से निकलते हैं। इस इलाके में अभी पर्यटन ढांचा पूरी तरह विकसित नहीं है। द्रोगपा गांव लेह से 150 से 170 किलोमीटर आगे हैं। वहां रुकने के लिए कुछ गेस्टहाउस हैं और साथ ही आस-पास के कुछ गांवों में भी कैंपिंग साइट बनाई गई हैं।
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