आस्था का सर्वोच्च शिखर: अमरनाथ

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तारीख 20 जुलाई, समय शाम सात बजे, ऊंचाई समुद्र तल से 3978 मीटर, उजाला अभी भी फैला हुआ है। चारों ओर बर्फ का श्वेत धवल साम्राज्य है। हम लोग एक लंबी, संकरी घाटी के एक से दूसरे सिरे की ओर बढ़ रहे हैं। आज वह चिर प्रतीक्षित क्षण आ पहुंचा जिसके लिए पिछले चार-पांच वर्षो से कोशिश के बावजूद अभी तक सफलता नहीं मिल सकी थी। हम लोग भारत में भगवान शिव के सबसे ऊंचे प्राकृतिक मंदिर के सामने खड़े थे। मैं महादेव शिव के बर्फानी बाबा रूप में अमरनाथ मंदिर के सामने खड़े होकर उसकी प्राकृतिक भव्यता, गुफा विशालता, भक्तों के सैलाब, बर्फके विस्तार, वृक्षरहित पहाडि़यों तथा बर्फके नीचे बहती अमरगंगा के एहसास में इस तरह खो गया हूं कि काफी देर तक अपने अस्तित्व को ही भूल गया। ऐसा लगा जैसे मैं कुछ क्षणों के लिए प्रकृति के साथ एकाकार हो गया हूं। परंतु यह अनोखा अनुभव शीघ्र ही समाप्त हो गया और मैं फिर शिवभक्तों के सैलाब के साथ ‘जय भोले’, ‘जय बर्फानी बाबा’ के जयकारों के बीच,  चारों ओर लगे तंबुओं के बीच से होते हुए सौ से अधिक सीढि़यां चढ़कर गुफा के मुख्य भाग की ओर चल पड़ा।  इस यात्रा के लिए पिछले कई वर्षों में कई बार प्रयास किया गया। रजिस्ट्रेशन कराए गए, रेल रिजर्वेशन हुए, एक बार तो मोटर साइकिलों से जाने की पूरी तैयारी हो गई परंतु हर बार किसी न किसी कारण से यात्रा नहीं हो सकी। यात्रा के साथी भी अलग थे। अब तक मोटर साइकिल यात्राओं में रोमांचप्रिय मित्रों का साथ होता था तथा कार यात्राओं में परिवार का, परंतु इस बार मैंने सोचा कि क्यों न यह यात्रा परजीवी की तरह की जाए। हमारे शहर में शिवरात्रि सेवा मंडल के तत्वावधान में अमरनाथ यात्रा का आयोजन हर साल होता है तथा भंडारा भी बालटाल, पंचतरणी, शेषनाग आदि स्थानों पर लगता है। इसके कर्ताधर्ता श्री देशबंधु अग्रवाल की मदद से मेरी भी व्यवस्था एक ग्रुप के साथ हो गई तथा हमारे दर्शन रजिस्ट्रेशन भी 21 तारीख (गुरु पूर्णिमा) के लिए करवा लिए गए। हमारे दल के नायक बनाए गए एक सीए अवन कुमार सिंह। इसमें कुल 21 लोग थे। उम्र की दृष्टि से देखें तो इनमें 21-22 वर्ष के नौजवानों से लेकर साठ साल तक के लोग शामिल थे। सौभाग्य से इस दल में ही मेरे एक मित्र विनोद कुमार तिवारी भी शामिल थे।

शुरू हुआ सफर

हम लोग 17 तारीख की शाम को अलीगढ़ से ट्रेन द्वारा दिल्ली तथा दिल्ली से रात में साढ़े दस बजे चलकर सुबह 10 तारीख को जम्मू तक आसानी से पहुंच गए। रास्ते में सभी लोगों का आपस में परिचय हुआ तो अनेक लोग पूर्व परिचित निकले। जम्मू      स्टेशन से नहा-धोकर तैयार होकर नाश्ता करके हम लोगों ने टैक्सी स्टैंड से बालटाल तक आने और श्रीनगर में ‘साइटसीइंग’ आदि के लिए टैक्सियों की व्यवस्था की तथा दल को तीन भागों में बांट कर सात-सात लोग सवार  हो गए। जम्मू शहर में यद्यपि रघुनाथ मंदिर, बागे बाढू आदि अनेक दर्शनीय धार्मिक स्थल हैं, परंतु दल के साथ होने के कारण मुझे जम्मू किसी और समय के लिए छोड़ना पड़ा। शीघ्र ही हम लोग जम्मू-श्रीनगर हाइवे (एनएच 1 ए) पर थे। सड़क पहाड़ी क्षेत्र के हिसाब से बेहद अच्छी थी। चौड़ाई ठीक तथा सतह भी अच्छी थी, परंतु इस सड़क पर ट्रैफिक बहुत ज्यादा है। वास्तव में यह केवल सड़क नहीं, श्रीनगर घाटी की जीवन रेखा है जो इसे शेष भारत से जोड़ती है। बरसात में जब भी यह सड़क रुकती है, घाटी में जीवन कठिन और महंगा हो जाता है। हम लोग जम्मू स्टेडियम की सुरक्षा जांच को पार कर आगे बढ़ चले थे, अब न तो ‘कानवाय’ का चक्कर था और न ही एक समान गति रखने की बाध्यता। धीरे-धीरे हमें ऊंचाई की ओर जा रहे थे और साथ चलती वनस्पतियां अपना रूप बदल रही थीं। मैदानी वनस्पतियों का स्थान खूबसूरत पहाड़ी पौधे ले रहे थे। एक बार जम्मू से निकल कर हम लोग 60-70 किमी चलकर ही रुके जहां एक भंडारे के लोगों ने हमें बेहद मनुहार करके कुछ न कुछ खाने को बाध्य किया।

खूबसूरती बढ़ाते हैं देवदार

यहां से चलकर हम लोग तेजी से ऊंचाई की तरफ बढ़ने लगे और कुछ ही समय में इस क्षेत्र के बेहद मनोहारी पर्यटन स्थल पटनीटाप जा पहुंचे। अब तक हम 120 किलोमीटर का सफर पूरा कर चुके थे। पटनीटाप 2024 मीटर की ऊंचाई पर स्थित बेहद ़खूबसूरत स्थान है। यहां जम्मू-कश्मीर पर्यटन विभाग ने बहुत ही खूबसूरत टूरिस्ट हट्स तथा बंगले बनाए हैं, जो इस परिवेश में रचे-बसे से लगते हैं। ऊंचे-ऊंचे देवदार के शानदार वृक्ष इसकी खूबसूरती में चार चांद लगाते दिख रहे थे। चारों ओर हरियाली का साम्राज्य था तथा कई प्रजातियों के रंग-बिरंगे फूल अपनी छटा बिखेर रहे थे। यद्यपि मुख्य स्थल विस्तार में छोटा ही है, परंतु बेहद सुंदर है। ढलान एकदम हरी घास से ढके हैं तथा एकदम सामने, दूर स्थित बर्फीले पहाड़ दृश्य को और मनोरम बना देते हैं। चलते हुए हमें यह खयाल जरूर आया कि यह स्थान बर्फ पड़ने के बाद कितना सुंदर लगता होगा, पर समय कम होने के कारण हम वहां रुके बगैर आगे बढ़ने को बाध्य थे। यहां से 17 किलोमीटर आगे सनासर के जलप्रपात दृश्य को भी बिना देखे ही हमें आगे बढ़ना पड़ा।

यहां से 10-15 किलोमीटर की दूरी पर विश्वप्रसिद्ध जवाहर सुरंग है। यह बनिहाल पर्वतश्रृंखला में स्थित है। यह अपने निर्माण में अनूठी है। पाकिस्तान हर द्वंद्व के समय तथा शांतिकाल में भी इस सुरंग मार्ग को नष्ट करने का लगातार प्रयास करता रहा है तथा हमारे सुरक्षा बल इसकी सुरक्षा की जिम्मेदारी बेहद गंभीरता से निभाते आ रहे हैं। यह सुरंग द्विमार्गी है तथा इसकी कुल लंबाई 2.85 किलोमीटर है। इसमें विद्युत व्यवस्था लगातार रहती है तथा जगह-जगह ़खराब वाहनों को पार्क करने का स्थान, इमरजेंसी टेलीफोन आदि की व्यवस्था भी है। इस सुरंग का निर्माण हमारे सीमा सड़क संगठन की एक शानदार उपलब्धि है। शीतकाल में इसके मुख से बर्फ को लगातार हटाया जाता रहता है। सुरंग को पार करने का अनुभव अपने-आपमें एकदम अलग है।

जुड़ता-बिखरता काफिला हम लोग लगातार चलते रहे। भारी ट्रैफिक के कारण हमारी गाडि़यां बार-बार अलग हो जाती थीं। हम लोग काजी  गुड, खसाबल, विजबेहड़ा पार करते हुए शाम साढे छह बजे ‘अवंतीपुर’ आ पहुंचे, जो किसी समय कश्मीर की राजधानी था तथा राजा अवंती वर्मन के नाम पर यह नगर बसाया गया था। पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग ने यहां के प्रसिद्ध मंदिर को जमीन से खोदकर निकाला है, जिसकी छटा ध्वस्त हो चुकी है। परंतु 700-900 वर्ष पुराना यह मंदिर अपने काल की समृद्धि, उत्कृष्ट कला कौशल तथा स्थापत्य को प्रदर्शित करने के लिए पर्याप्त है। इसमें मुख्य रूप से लक्ष्मीनारायण की मूर्तियां स्थापित थीं तथा मुख्य मंदिर सभी ओर से अन्य देवी-देवताओं तथा अनेक कक्षों से घिरा हुआ परिसर है। यहां निर्माण में रोमन, ग्रीक तथा स्थानीय पहाड़ी शैली का सुंदर प्रभाव देखने को मिलता है। मंदिर परिसर कम से कम तीन एकड़ क्षेत्र में फैला है। स्थानीय लोग बताते हैं कि यहां जमीन के नीचे पुराना अवंतीपुर नगर दबा हुआ है। मैंने फोटोग्राफी और वीडियोग्राफी के मध्य स्थानीय लोगों से कुछ जानकारी की तथा इसी मध्य हमारे अन्य वाहन आ गए। आखिरकार समय की कमी के कारण मंदिर को अंदर से देखने की इच्छा मन में दबाए हुए ही हम लोग आगे बढ़ चले। हम लोग श्रीनगर, पहलगांव दोराहा पहले ही पार कर चुके थे। श्रीनगर 8 बजे के बाद ही पहुंच सके। परंतु जम्मू से 11.30 बजे चलकर 8 बजे के आसपास श्रीनगर पहुंच कर हम सभी लोगों ने राहत की सांस ली।

अंधेरा हो गया था, अत: हम जल्दी से ठहरने की व्यवस्था करना चाहते थे। कुछ लोग हाउसबोट में रुकना चाहते थे और हमने कुछ हाउसबोट मालिकों से बातचीत भी की, पर अन्य साथियों की सहमति न होने तथा सुरक्षा कारणों के चलते झील के पास ही एक होटल में रात्रि बसेरा करने का निश्चय किया गया। परंतु इस प्रक्रिया में कई खूबसूरत हाउसबोट्स को अंदर से देखने का मौका जरूर मिल गया। यह अनुभव एकदम अलग था। हाउसबोट्स बाहर से एकदम सामान्य लगती हैं परंतु अंदर से बेहद आरामदेह, खूबसूरत तथा बाकी संसार से अलग होती हैं। खाना हम लोगों ने होटल के अंदर ही खाया और देर रात तक अपने अनुभवों का आदान-प्रदान करते रहे।

झील में जनजीवन

अगले दिन हमने रात को बेहद रोमांटिक तथा रोमांचक दृश्य उपस्थित करने वाली डल झील को दिन की रोशनी में देखा और झील के सामने ही नाश्ता करने के बाद एक-डेढ़ घंटे नौका विहार का आनंद लिया। झील दिन में भी अत्यंत आकर्षक लगती है। हाउसबोट्स के कई मुहल्ले ही इसमें बसे हुए हैं। कहीं फूलों की खेती हो रही है तो कहीं बच्चे नाव में बैठ कर स्कूल जा रहे हैं, ठीक वैसे ही जैसे हमारे शहरों में रिक्शों का प्रयोग होता है। झील में ही हैंडीक्राफ्ट के बाजार सजे हैं और कहीं रोजमर्रा की वस्तुएं बिक रही हैं। कुल मिलाकर झील की अपनी दुनिया है। झील के अंदर अनेक प्रजातियों की जल वनस्पतियां उगी हैं, जिनमें से कुछ झील के लिए हानिकारक भी हैं। झील की सफाई भी लगातार होती हुई हम लोगों ने देखी। इस पूरे दिन हम लोगों ने चश्मे शाही, निशात बाग, परीमहल, शालीमार बाग घूमे तथा ऊंचाई पर स्थित सुरक्षा प्रबंधों से बेतरह घिरे हुए शंकराचार्य मंदिर में दर्शन भी किए। यहां वीडियो कैमरे ले जाना मना है।

शाम पांच बजे हम लोग श्रीनगर छोड़कर गंदेरबल होते हुए बालटाल की ओर चल पड़े श्रीनगर से थोड़ा आगे ही यात्रा कानवाय में जा फंसे और उनके साथ ही कंगल, गुंड आदि होते हुए सोनमर्ग की ओर चल पड़े।

दृश्य का विस्तार सुंदर

यहां से साथ चलती सिंध (सिंधु नदी) अपने तीव्रतम वेग से बहती हुई दिखाई देने लगी और मैं चलती गाड़ी में से ही उसके बहाव और मोड़ काटने के अनुपम दृश्यों को कैमरे तथा वीडियो में कैद करने का लोभ छोड़ नहीं पाया। रुकना संभव नहीं था क्योंकि कानवाय तथा उसके सुरक्षा प्रहरी हमें इसकी अनुमति नहीं देते। इसलिए चलते-चलते ही जो बन पड़ा, वह सब हम करते गए। सोनमर्ग पहुंचते पहुंचते मार्ग का दृश्य और भी ़खूबसूरत हो गया। सड़क के दोनों ओर ढलान तथा हरियाली भरे छोटे और उनके पीछे बर्फीली चोटियों वाले पहाड़ एक क्रमिक दृश्य उपस्थित करते प्रतीत होते हैं।  सोनमर्ग एक छोटा सा कस्बा है जो बेहतरीन दृश्य विस्तार के लिए जाना जाता है। इसकी छोटी सी घाटी गुलमर्ग के बाद कश्मीर की सबसे खूबसूरत घाटी मानी जाती है। यहां से कुछ ही समय में हम लोग बालटाल आ गए, जिसके प्रवेश स्थल पर सुरक्षा जांच के चलते हमें अपने भंडारे तक पहुंचने में लगभग एक-डेढ़ घंटा लग गया। हमारा भंडारा बालटाल के तीन-चार सबसे बड़े भंडारों में से एक है। बहुत सारे लोगों के लिए भी पूरी चुस्त-दुरुस्त व्यवस्था होने के बावजूद भीड़ बहुत अधिक होने के कारण हम लोगों के सोने की व्यवस्था काफी रात गए हो सकी।

सेना का बड़ा पड़ाव

बालटाल ’जोजीला’ पर्वत श्रृंखला के आधार पर स्थित है तथा यात्रा के लिए बनाया गया विशेष पड़ाव है। साथ बहती नदी इसकी खूबसूरती तथा उपयोगिता दोनों को ही बढ़ा देती है। यहां सेना का भी बड़ा पड़ाव है।

अगले दिन हम लोग आराम से तैयार होकर आगे बढ़े और एक किलोमीटर पार करते-करते अधिकतर साथी थक कर घोड़े तय करते दिखाई दिए, परंतु मैं तथा ग्रुप के दो नौजवान साथी शिवकुमार तथा गुनीत पैदल ही चलते रहे। रास्ता बेहद खड़ी चढ़ाई वाला, संकरा तथा कठिन था। साथ ही घोड़ों के कारण मार्ग पर पैदल चलना और भी कठिन हो रहा था। आधा मार्ग पार करते साथ के दोनों नौजवान भी घोड़ों का सहारा लेने को विवश हो गए और मैं अपने कैमरों, बैटरियों, खाने की वस्तुओं का वजन उठाए अकेला चलता रहा। उल्लेखनीय बात यह है कि हमारे दल के सबसे बुजुर्ग साथी त्रिवेदी जी तथा दलनायक अवन सिंह भी आराम से पैदल चल रहे थे। मार्ग में अनेक ग्लेशियर हैं, जिन्हें पार करना जोखिम भरा है, परंतु साथ ही यह मार्ग की एकरसता को तोड़ते भी हैं। ऊंचाई से गिरते झरने तथा जमे हुए जल मार्ग को बेहद सुंदर बना देते हैं।

एक बेहद तीखी चढ़ाई और उससे भी तीखे ढलान के बाद हम ‘संगम टॉप’ पर आ पहुंचे, जो बालटाल से 10-11 किलोमीटर पर है। यहां अमर गंगा अन्य दो छोटी नदियों से मिल कर तिहरा संगम बनाती है। यह दृश्य वास्तव में अनुपम है। यहीं बालटाल तथा पहलगांव मार्ग का मिलान होता है। एक बार संगम तक नीचे जाकर फिर दूसरी ओर ऊपर चढ़ने का कार्य किसी को भी थका देने के लिए पर्याप्त है। बालटाल से यहां तक लगातार 3000 मीटर से भी अधिक की ऊंचाई किसी को भी श्वासरहित कर सकने में सक्षम है। परंतु महादेव के दर्शनों का मोह व्यक्ति की क्षमताओं को बढ़ा देता है। साथ ही उत्साही यात्री थके हुए यात्रियों में भी उत्साह का संचार करते हैं और जरूरत पड़ने पर मदद भी। एक बार फिर ऊपर आने पर हमने बेहद खूबसूरत दृश्य देखा। यहां से जहां तक नजर जा सकती थी, तीन ओर (हमारे पीछे छोड़ कर) बर्फ का साम्राज्य दिख रहा था। पहाड़ के ढलान दोनों ओर बर्फ की मोटी परत से ढके थे, जो 20 जुलाई को पूरी गर्मी बीतने पर भी नहीं पिघले थे। घाटी के दूसरी ओर दूर पर गुफा का आभास हो रहा है। अब थकान गायब हो रही थी। उसका स्थान मंजिल पर पहुंचने के उत्साह ने ले लिया, परंतु साथ ही कई लोग ऊंचाई पर होने वाले सिरदर्द तथा श्वांस लेने में असुविधा की शिकायत करने लगे। हम लोग बर्फ पर तेजी से चलते हुए तंबुओं के जंगल की ओर बढ़ने लगे, जो लगभग दो किलोमीटर दूर था। यह बस्ती बर्फपर ही बसी हुई अस्थाई प्रकृति की थी। आगे पहुंचने वाले साथी बस्ती के शुरू में ही एक तंबू की व्यवस्था कर आराम करने लगे तथा एक साथी तंबू के बाहर बैठ गए। धीरे-धीरे सभी साथी जुट गए। इनमें कुछ लोग तो आराम करने लगे और कुछ अमरगंगा के जल से स्नान कर पूजा सामग्री लेकर तुरंत मंदिर की ओर चल पड़े। शाम के समय भीड़ कम थी। वापस जाने वाले लोग जा चुके थे। इस बीच हम लोग भी मुख्य मंदिर के निकट पहुंचकर उसके प्राकृतिक सौंदर्य में खो गए।

मुसलिम गड़रिये की खोज

इस गुफा में हवा का घुमाव ही कुछ ऐसा है कि यहां हर साल शरद ऋतु में प्राकृतिक रूप से विशाल शिवलिंग बन जाता है। यह बाकी स्थानों की बर्फ पिघल जाने पर भी अपना अस्तित्व बनाए रखता है तथा गुरुपूर्णिमा से रक्षाबंधन तक यहां एक माह तक आधिकारिक तौर पर पूजा अर्चना होती रहती है। मंदिर में धूप-दीप जलाना और फोटो के लिए फ्लैश का प्रयोग करना वर्जित है। दर्शन व्यवस्था अच्छी है तथा सुरक्षा बल कड़ाई बरतते हुए भी विनम्र तथा सहयोगी हैं।  इस गुफा की खोज काफी पहले एक मुसलिम गड़रिये ने की थी। आज भी चढ़ावे का एक भाग उसके वंशजों को दिया जाता है। इस स्थान का उल्लेख पुराणों में है। इससे जुड़ी अनेक रोचक कथाएं प्रचलित हैं, परंतु मुझे तो इसके प्राकृतिक निर्माण तथा इस स्थल की भव्यता ने मोह लिया है। यह शिवमंदिर भारत में सर्वाधिक ऊंचाई पर स्थित है। इसके दर्शन के मोह में लाखों लोग मार्ग की कठिनाइयों को अनदेखा करके हर वर्ष यहां आते हैं। मंदिर में दर्शन कर हम लोग निकले ही थे कि हमें अमरकथा के अमरपात्र कबूतरों के जोड़े के दर्शन हो गए। अनेक भक्त उनके दर्शन कर अभीभूत थे और महादेव बाबा का धन्यवाद कर रहे थे। यहां भी कई भंडारे लगे थे और लोगों को बुला-बुला कर मनुहार करके कुछ न कुछ खाने का आग्रह कर रहे थे। हम भी ऐसे ही भंडारों पर कुछ-कुछ खाते पीते अपने टैंट में वापस आ गए। हालांकि रात्रि विश्राम कुछ अच्छा नहीं रहा, नींद कई बार खुलती रही और सुबह उठने पर सिर में दर्द भी था, परंतु इस ऊंचाई पर पूरी तरह बर्फ के बीच बसेरा करने पर यह स्वाभाविक स्थिति थी।

घोड़ों पर वापसी

सुबह तैयार होकर फिर एक बार हम लोग मंदिर दर्शन को गए और गुरुपर्व पर होने वाली विशेष पूजा का पुण्य आनंद लिया, फिर वापस आ कर सामान व्यवस्थित करते-करते हमें 11 बज गए। हम लोग मंदिर को बार-बार निहारते हुए फिर आने के संकल्प के साथ वापसी यात्रा पर रवाना हुए। कई लोगों के पैरों में छाले पड़ गए थे। हम उसी दिन बालटाल से श्रीनगर आना चाहते थे। अत: वापसी में सभी ने घोड़ों पर जाना सुनिश्चित किया। इस बार लगा कि घोड़ों पर बैठना भी एक सजा जैसा है। खासकर ढलान पर संतुलन बनाए रखना खासा मुश्किल है। अत: मेरे सहित ग्रुप के कई लोग ढलान पर घोड़ों से उतर कर ही चले। तीन दिन से बारिश नहीं हुई थी, अत: रास्ता बेहद धूल भरा हो गया था। करीब साढ़े तीन बजे बालटाल पहुंच गए। अपने भंडारे पर पहुंच कर सभी लोग तुरंत ही नहाधोकर अपने सामान सहित टैक्सी स्टैंड पर जा पहुंचे तथा अपनी गाडि़यों में सवार होकर 5.30 बजे बालटाल को अलविदा कह दिया। मार्ग में थोड़ी देर सोनमर्ग पर रुककर हम लोग 7.30 बजे श्रीनगर उसी होटल में जा पहुंचे और रात्रि विश्राम कर अगले दिन सुबह 9 बजे जम्मू की ओर चल दिए। रास्ते में भूस्खलनों के कारण अनेक जगह ट्रैफिक जाम तथा मार्ग खोलने के कार्य के कारण लगभग 9 बजे तक कटरा आ सके। कटरा आने का निर्णय श्रीनगर में ही हो गया था क्योंकि वैष्णोदेवी के दर्शनों का इससे बेहतर मौका हमें और कई नहीं हो सकता था। खाना खाकर कुछ देर विश्राम के बाद वैष्णो देवी मंदिर दर्शन हेतु हमने पैदल चढ़ाई शुरू की और 4.30 बजे ऊपर पहुंच कर अपने दर्शन टिकट लेकर सुबह की आरती में शामिल होकर माता दर्शन का सौभाग्य प्राप्त किया। फिर नीचे उतर कर कटरा में ही रात्रि विश्राम कर अगले दिन 9.30 बजे चल कर 11 बजे जम्मू आ गए। वहां से हमारा ट्रेन से वापसी का रिजर्वेशन था। यह यात्रा पहले की यात्राओं से कई अर्थो में भिन्न थी। साथी नए थे और यह यात्रा मूलत: धार्मिक थी। साथ ही यात्रा पूरी तरह जन परिवहन व्यवस्था पर निर्भर थी। पर एक तत्व जाना-पहचाना था, वह था रोमांच। नए स्थानों को देखने की उत्सुकता, दुर्गम मार्गो को पार करने का उत्साह तथा सुंदर दृश्य देखने का लोभ हमें नई-नई यात्राओं पर जाने के लिए सदा प्रेरित करता रहता है।

कैसे पहुंचें

यों तो कश्मीर घाटी जाने के लिए अनेक विशेष व्यवस्थाओं जैसे मार्ग निर्धारण, बुकिंग (होटल तथा पर्यटन गाइड आदि) सुरक्षा समीक्षा की आवश्यकता होती है। परंतु अमरनाथ यात्रा के समय सुरक्षा बलों की विशेष तैनाती होती है तथा भंडारों आदि के कारण, रुकना खाना-पीना आदि हेतु सोचना नहीं पड़ता। दिल्ली से जम्मू हेतु अनेक ट्रेनें तथा बसें हैं साथ ही निजी वाहन या टैक्सी आदि से भी जाया जा सकता है। जम्मू से श्रीनगर बस, टैक्सी, निजी वाहन से जाना सुलभ है। (दिल्ली से सीधे श्रीनगर के लिए हवाई यात्रा भी सुगम है तथा समय बचाने वाली भी) श्रीनगर से बालटाल हेतु टैक्सियां तथा बसें जम्मू काश्मीर पर्यटन विभाग चलाता है तथा प्राइवेट टूर आपरेटर भी। बालटाल से पर्यटन विभाग तथा मंदिर समिति द्वारा हैलीकाप्टर सेवा (एक ओर का किराया 5500 रुपये) द्वारा मात्रा 5-7 मिनट में गुफा के निकट स्थिति हैलीपैड पर पहुंचा जा सकता है। अन्यथा पैदल, घोड़े, पालकी आदि हैं ही।

भंडारों में बिना किसी भुगतान के ठहरने तथा खाने-पीने की ठीक-ठाक व्यवस्था की जाती है। इनका पूरा उपयोग करें तथा अच्छा लगे तो भंडारों को दान में धनराशि, सामान और सबसे बढ़कर एक समय सेवादारी करके उनके द्वारा दी गई सुविधा का प्रतिदान करें।

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    3 Responses to “आस्था का सर्वोच्च शिखर: अमरनाथ”

      Nimit के द्वारा
      June 10, 2010

      this is a good post

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